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नटनी के शाप से गर्क सिरमौर उजड़ा और फिर बसा----
सिरमौर रियासत का इतिहास....!
राजा मदन सिंह के काल से शुरू हुआ माना जा सकता है। राजा मदन सिंह, सिरमौर जनपद के भूपति थे। सिरमौर जनपद का मुख्यालय राजबन में गिरी गंगा के तट पर अवस्थित था।
प्रचलित गाथा के अनुसार। एक नटनी के आह्वान पर राजा मदन सिंह इतने अभिभूत हो गए कि उन्होंने नटनी को अपना आधा राज्य देने का वचन ही दे दिया।
नटनी ने राजा मदन सिंह को रिझाते हुए कहा था-
‘‘महाराज...! यदि मैं इस पवित्र गिरी गंगा को रस्सी पर चलकर वार-पार करूं तो पुरस्कार में आप मुझे क्या देंगे।’’
राजवंश हमेशा अपने अहंकार के दास रहे हैं। राजन ने नटनी की प्रतिभा का अवमूल्यन कर, यह जानकर कि गिरी गंगा को पार करना इस स्त्री के वश में नहीं है, नटनी को ‘आधा राज्य’ देने वचन दे दिया।
राजन ने कहा- ‘‘नटनी यदि तुम इस दुर्लभ कार्य को पूरा करने का सामर्थ रखती है, तो हम भी अपने वचन को पूरा करेंगे।’’
निर्धारित काल पर। नटनी, गिरी गंगा के ठीक ऊपर बंधी रस्सी पर करतब दिखाते हुए एक छोर से दूसरे छोर पहुंच चुकी थी। तत्पश्चात वह वापसी का आधा मार्ग भी तय कर चुकी थी।
तभी राजा आधा राज्य छिन जाने के भय से कांप उठे। रियासत के रणनीतिकारों ने रस्सी काटी दी। नटनी गिरी गंगा में गिर कर मृत्यु की गोद में समा गई। मरने से पूर्व नटनी ने सिरमौर रियासत को गर्क होने और राजवंश के नाश का शाप दिया था।
कहते हैं, नटनी के शाप के फलस्वरूप एक बार गिरी गंगा में इतनी भयंकर बाढ़ आई कि उसने तट पर बसे राजमहल सहित, रियासत को राजवंश विहीन कर दिया। ऐसा प्रलय आया कि पूरा राजमहल जलमग्न हो गया और राजवंश के कुल का ही नाश हो गया।
संभवतः सिरमौर गर्क होने की यह घटना सन 1094-95 के बीच की रही होगी।
सिरमौर में प्रकाश वंश के शासनकाल के आरम्भ होने के भिन्न मत हैं। एक मत के अनुसार बाढ़ की भेंट चढ़ने के कारण काफी समय तक सिरमौर रियासत की गद्दी खाली रही। इसकी सूचना जब राजस्थान के जैसलमेर के राजा रसालु तक पहुंची तो उन्होंने अपने बड़े पुत्र को सिरमौर का राजा नियुक्त कर उसे गद्दी पर बिठाया।
दूसरे मत के अनुसार नटनी के शाप से गर्क हुई सिरमौर रियासत, वंशहीन हो चुकी थी। इस दौरान जैसलमेर के राजा उग्रसेन हरिद्वार में पवित्र स्नान के लिए आए। तीर्थ स्नान के दौरान ही सिरमौर रियासत के कुछ प्रमुख लोगों से उनकी भेंट हुए। राजन के धार्मिक स्वभाव के कारण रियासत प्रमुखों ने उनसे सिरमौर रियासत को संभालने का आग्रह किया। इस आग्रह पर राजा उग्रसेन ने अपने पुत्र सोबा रावल को सिरमौर की रिक्त पड़ी गद्दी पर बिठाया और राजबन में ही नई राजधानी स्थापित की। सोबा रावल ने सुबंस अथवा सुवंश प्रकाश टाईटल से सिरमौर पर शासन किया।
राजा सुबंस प्रकाश ने सन् 1095 से 1099 तक सिरमौर पर शासन किया। चार वर्ष शासन के उपरांत उनकी मृत्यु हो गई।
इस प्रकार उनके वंशज राजा मलही प्रकाश ने 1108 से 1117 तक सिरमौर जनपद पर शासन किया। मलही प्रकाश धार्मिक प्रवृति के शासक थे। उन्होंने गढ़वाल के श्रीनगर रियासत के शासकों से युद्ध किया और मालदा में उन्हें बंदी बनाया।
राजा मलही प्रकाश के वंशज राजा उदित प्रकाश ने 1121 से 1127 तक रियासत पर राज किया। मल्ही प्रकाश के शासन के दौरान सिरमौर की राजधानी राजबन से हस्तांतरित कर देहरादून क्षेत्र के ‘कालसी’ में लाई गई।
राजा सोमर प्रकाश जिन्होंने 1149 से 1158 तक रियासत पर शासन किया ने कियोंथल के रतेश किले पर कब्जा कर अपनी राजधानी वहां स्थापित की।
किन्तु राजा सूरज प्रकाश, जिन्होंने 1158 से 1169 तक यहां शासन किया, ने पुनः कालसी को अपनी राजधानी बनाया। इस दौरान उनके मातहतों ने ही उनके विरूद्ध द्रोह किया और उनकी पुत्री की हत्या कर दी। किले की रक्षा करते हुए उनकी पुत्री वीरगति को प्राप्त हुई।
पुत्री की हत्या का दुखद समाचार पाकर राजा सूरज प्रकाश ने कालसी से वापिस रतेश लौटकर इस द्रोह के लिए विद्रोहियों को दंडित किया। जुब्बल, बलसन, कुमारसैन, घौंड, साहरी, ठियोग, रिवेन और कोटगढ़ के ठाकुरों को उन्होंने ट्रिब्यूट देने के लिए मजबूर किया।
उधर, सिरमौर रियासत का अगले एक-डेढ़ दशकों तक कोई ज्यादा ऐतिहासिक महत्व नहीं रहा।
राजा जगत प्रकाश जिन्होंने 1342 से 1356 तक रियासत पर शासन किया अपने कुशासन के लिए ख्यात थे। इसी वजह से ठाकुरों ने पुनः सिरमौर के विरूद्ध विद्रोह किया।
बीर प्रकाश सन् 1356 में अपने पिता जगत प्रकाश के स्थान पर राजगद्दी पर काबिज हुए और उन्होंने सन् 1366 तक शासन किया। बीर प्रकाश ने जुब्बल और खेवट के रियासतों के ठाकुरों के विद्रोह को अपने बल से कुचला।
इस अवधि में सिरमौर रियासत मुख्यालय नेरी, कोट, और रतेश परगना के गरगाह में स्थानांतरित होती रही।
राजा बुध प्रकाश ने सत्ता संभालने के बाद पुनः कालसी में अपनी राजधानी स्थापित की।
सिरमौर रियासत की नवीन राजधानी नाहन में 1621 में राजा कर्म प्रकाश ने स्थापित की। राजा कर्म प्रकाश ने 1616 से 1630 तक सिरमौर पर शासन किया। बाबा बनवारी दास के परम अनुयायी के रूप में राजा सिरमौर ने नाहन में सुंदर शहर का निर्माण किया और राजपरिवार के लिए भव्य राजमहल बनवाया। बाबा बनवारी दास सिद्ध पुरूष थे और उन्होंने नाहन के श्रीजगन्नाथ मंदिर में वर्षों तक उपासना की।
एक समय में राजा कर्म प्रकाश से मुगल बादशाह शाहजहां ने 2000 अश्वों की मांग की ताकि गढ़वाल के श्रीनगर रियासत पर सैन्य चढ़ाई की जा सके। राजा सिरमौर ने बादशाह के आग्रह को स्वीकार किया। राजा सिरमौर द्वारा गढ़वाल चढ़ाई के अवसर पर मुगलों को दिए गए सहयोग के लिए मुगल बादशाह ने एक फरमान के उपरांत कोटाह क्षेत्र का एक महत्वपूर्ण भाग सिरमौर को सौंप दिया।
इस प्रकार मनधाता प्रकाश (मंधता) ने 1630 से 1654 तक सिरमौर की रियासत पर राज्य किया।
राजा सुभग प्रकाश ने सन् 1654 से 1664 तक सिरमौर पर शासन किया। राजा सुभग प्रकाश एक अच्छे प्रशासक थे जिन्होंने अपनी रियासत के काम-काज में काफी ध्यान लगाया। विशेषकर कृषि के विकास में।
राजा बुध प्रकाश जिन्होंने सन् 1664 से 1684 तक सिरमौर पर शासन किया। इस अवधि में ही मुगलों ने बैरत फोर्ट को श्रीनगर की रियासत से छुड़वाकर सिरमौर को सौंप दिया जो कि मूल रूप से सिरमौर का ही भाग था।
बुध प्रकाश के पुत्र जोगराज, ने सन् 1684 से 1704 तक मत प्रकाश टाईटल के साथ सिरमौर पर राज किया। मुगलों ने भी मत प्रकाश को मान्यता दी।
इस काल की महत्वपूर्ण घटनाओं में गुरू गोविंद सिंह का सिरमौर आगमन था। बिलासपुर नरेश ने गुरू गोविंद सिंह को आनंदपुर से निष्कासित कर दिया था। गुरू गोविंद सिंह करीब 3 वर्ष तक सिरमौर रियासत में रहे। बाद में बिलासपुर और श्रीनगर के नरेशों के साथ गुरूजी का युद्ध हुआ। पावंटा जहां गुरू गोविंद सिंह जी को विजय प्राप्त हुई थी वहां विजय के प्रतीक के रूप में पांवटासाहिब गुरूद्ववारे का निर्माण किया गया।
राज मत प्रकाश सन् 1704 में निसंतान मरे।
इस प्रकार राजा हरि प्रकाश। सिरमौर की गद्दी पर आसीन हुए और उन्होंने सन् 1704 से 1712 तक सिरमौर पर शासन किया।
राजा हरि प्रकाश की मृत्यु उपरांत उनके पुत्र राजा प्रताप प्रकाश ने सन् 1736 से 1754 तक शासन किया। वह एक कमजोर शासक सिद्ध हुए और उनके लचर प्रशासन से रियासत में कई तरफ से विद्रोह के स्वर गूंजे।
सन् 1754 में राजा हरि प्रकाश के पुत्र राजा किरत प्रकाश ने गद्दी संभाली। उन्होंने 1770 तक शासन किया। राजा किरत प्रकाश एक कुशल प्रशासक थे और उन्होंन गढ़वाल क्षेत्र के राजाओं के खिलाफ विजय हासिल की। उन्होंने नारायणगढ़, रामपुर, थानाधार, मोरनी, पिंजौर, रामगढ़ और जगतगढ़ के कई भागों को अपनी रियासत में मिलकार सिरमौर रियासत का विस्तार किया।
अपनी बल और बुद्धि से राजा किरत प्रकाश ने पटियाला के राजा अमर सिंह से संधि कर सईफाबाद को सिरमौर रियासत में शामिल किया। बाद में गढ़वाल के श्रीनगर रियासत के साथ मिलकर उन्होंने गोरखों के विरूद्ध आंशिक युद्ध किया।
राजा किरत प्रकाश की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र राजा जगत प्रकाश सन् 1770 से 1789 तक सिरमौर के शासक रहे। यह काल भी इतिहास की दृष्टि से ज्यादा गौरवशाली नहीं रहा।
राजा धर्म प्रकाश ने सिरमौर पर सन् 1789 से 1793 तक शासन किया। इस कालखंड में ही नालागढ़ के राजा राम सिंह ने सिरमौर के कुछ हिस्सों पर कब्जा कर लिया था जिन्हें सिरमौर नरेश ने बाद में वापिस हासिल किया। उन्होंने श्रीनगर के राजा से देहरादुन के समीप स्थित ‘खुशाल किले’ को वापिस प्राप्त किया।
इस काल में कांगड़ा के राजा संसार चंद ने बिलासपुर रियासत चढ़ाई कर दी। बिलासपुर के राजा के आग्रह को स्वीकार करते हुए राजा जगत प्रकाश ने स्वयं ही अपनी सेना की टुकड़ी का नेतृत्व करते हुए कांगड़ा के राजा के विरूद्ध भयंकर युद्ध लड़ा। दुर्भाग्य से इस युद्ध में राजा धर्म प्रकाश वीरगति को प्राप्त हुए।
राजा धर्म प्रकाश की मृत्यु उपरांत उनके भाई राजा करम प्रकाश ने सिरमौर की गददी हासिल की। वह एक उदासीन शासक थे फलस्वरूप उसने समस्त जनपदों का सहयोग गंवा दिया।
इस काल में राजमहल में षडयंत्रों का बोल-बाला रहा। कुछ षड़यंत्रकारियों ने राजा सिरमौर करम प्रकाश के भाई रतन प्रकाश के साथ मिलकर सिरमौर की गददी को हथियाने का प्रयास किया।
इसी बीच राजा कर्म प्रकाश ने, षड़यंत्रों पर विजय की कामना लेकर नेपाल से भारत पहुंचे गोरखा सेना प्रमुख काजी रणजोर थापा से सहायता की गुहार लगाई।
कमांडर थापा ने इस अवसर का लाभ उठाया और राजमहल को षडयंत्र से मुक्त करवाया। गोरखा कमांडर ने प्रतीकात्मक रूप से रतन प्रकाश को ही गददी पर बिठा दिया और कर्म प्रकाश को उनकी गददी वापिस नहीं लौटाई।
राजा कर्म प्रकाश इस निर्णय से अत्याधिक आहत हुए और उन्होंने रामगढ़ रियासत के अधीन सुबाथु में शरण ली। रामगढ़ नरेश कुशाल सिंह की मृत्यु के उपरांत उनके पुत्र ने कर्म प्रकाश को रियासत छोड़ने का आदेश दिया और वे बूडि़या चले गए जहां उन्होंने सन् 1826 तक अपनी मृत्यु तक आवास किया।
इस दौरान राजा कर्म प्रकाश की धर्मपत्नी रानी गुलेर ने लुधियाना अवस्थित ब्रिटिश कमांडर कर्नल आक्टरलोनी से सहायता की गुहार लगाई और सिरमौर की रियासत को गोरखों से मुक्त करने का आग्रह किया।
इस आग्रह के बाद ब्रिटिशरों ने गोरखों के विरूद्ध औपचारिक रूप से युद्ध का ऐलान कर दिया।
लुधियाना से मार्च कर ब्रिटिश सैनिकों ने देहरादून के कलिंगर से गोरखा सैनिकों को खदेड़ा।
इसके पश्चात ब्रिटिश टुकड़ी सिरमौर की राजधानी नाहन पहुंची। ब्रिटिश सेना ने नाहन से 8 किलोमीटर दूर स्थित जैतक फोर्ट में अवस्थित गोरखा सैनिकों पर हमला किया। किन्तु गोरखा सैनिकों के अदम्य साहस और गुरिल्ला युद्ध के कारण ब्रिटिश सेना को जान और माल की भारी क्षति हुई और उनके लगभग 1600 सैनिकों ने जाने गंवाई।
इस प्रकार ब्रिटिश सैनिकों के सहयोग से भी गोरखा सैनिकों को सिरमौर से खदेड़ा नहीं जा सके और वे सन् 1815 में रायल नेपाल सरकार और ब्रिटिश इंडिया गवर्मेंट के बीच हुए समझौते के बाद ही यहां से रूखसत हुए।
सिरमौर रियासत के गोरखों से मुक्त होने के बावजूद राजा कर्म प्रकाश को ब्रिटिशरों ने उनकी गद्दी नहीं लौटाई। किन्तु उनके पुत्र फतेह प्रकाश को सनद प्रदान की और उनकी पत्नी और राजकुमार की माता को उनके व्यस्क होने तक राजकुमार का संरक्षक नियुक्त किया। 1827 में फतेह प्रकाश के व्यस्क होने के उपरांत ब्रिटिश सरकार ने उन्हें राज्य के सारे अधिकार लौटा दिए।
राजा फतेह प्रकाश जिन्होंने सन् 1815 से 1850 तक सिरमौर पर शासन किया के ब्रिटिशरों के साथ प्रगाढ़ सम्बध रहे।
प्रथम अफगान वार के समय सिरमौर नरेश ने ब्रिटिशरों को मैन एण्ड मेटिरियल (जान-माल) देकर सहायता की।
सन् 1839-1846 के दौरान प्रथम सिख वार में भी राजा सिरमौर ने ब्रिटिशरों का साथ दिया और ‘हरि-का-पत्तन’ में ब्रिटिशरों की सहायता के लिए अपना सैनिक दस्ता भेजा।
राजा फतेह प्रकाश की मृत्यु उपरांत सन् 1850 से 1856 तक राजा रघुबीर प्रकाश ने शासन किया।
राजा रघुबीर प्रकाश के पश्चात राजा शमशेर प्रकाश ने सन् 1856 से 1898 तक 42 वर्ष तक सिरमौर पर शासन किया।
राजा शमशेर प्रकाश ने कियोंथल की राजकुमारी से विवाह किया जो एक खूबसूरत और सामर्थ्यशाली महिला थाी। सिरमौर नरेश की अनुपस्थित में रानी रियासत के काम-काज का सफलतापूर्व संचालन करती थीं।
रानी की अकस्मात मृत्यु के उपरांत राजा शमशेर प्रकाश ने वियोग में राजप्रसाद का त्याग कर दिया और ‘शमशेर भवन’ को अपना आवास बनाया, जिसका निर्माण उन्होंने स्वयं ही किया था।
राजा शमशेर प्रकाश दूर-द्रष्टा और सुयोग्य शासक थे। इस अवधि में उन्होंने पुलिस, न्यायपालिका, रेवन्यु कोर्ट, पब्लिक वर्कस डिपार्टमेंट जिसे म्यूनिसिल काउंसिल कहा गया की स्थापना की। यह म्यूनिसिपल रियासतों में स्थापित होने वाली पहली नगरीय संस्था थी।
इस दौरान दवाखाने, स्कूल, पोस्ट आफिस भी खोले गए। चेत्ता (छेत्ता) में लोह खान विकास का प्रयास किया गया जो कि लाभप्रद सिद्ध नहीं हुआ।
उसके बाद सिरमौर नरेश ने सन 1864 मंे नाहन फाउंडरी की स्थापना की।
देश में हुए 1857 के विद्रोह के पश्चात राजा शमशेर प्रकाश को इम्पीरियल लेजिसलेशन काउंसिल का मेम्बर बनाया गया और उन्हें खिल्लत बख्शी गई। सन् 1876 में उन्हें के.सी.एस.आई और 1886 में जीसीएसआई से नवाजा गया। उन्हें 13 गन सेल्यूट के लिए अधिकृत किया गया। ब्रिटिश सरकार के प्रति उदारता के दृष्टिगत सन् 1896 में सिरमौर रियासत को सुप्रीडेंट ऑफ शिमला हिल्स स्टेट के नियंत्रण से मुक्त कर दिल्ली कमिशनरी के तहत लाया गया।
अक्तूबर 1898 में राजा शमशेर प्रकाश के मृत्युपरांत राजा सुरेन्द्र विक्रम प्रकाश ने गद्दी संभाली और सर मैक्वथ यंग ने उन्हें 27 अक्तूबर 1898 को सिरमौर की गद्दी पर औपचारिक रूप से स्थापित किया।
अपने पिता की तरह सुरेन्द्र विक्रम प्रकाश, बुद्विमान और शिक्षित थे। उन्होंने रियासत में बेहतरीन शासन व्यवस्था कायम की। उन्होंने सुकेत रियासत से विवाह सम्बन्ध स्थापित किए।
ब्रिटिश सरकार द्वारा सन् 1901 में राजा सुरेन्द्र विक्रम प्रकाश को के.से.एस.सी.आई. और सन् 1902 में इम्पीरियल लै. काउंसिल का सदस्य नियुक्त गया।
राजा सिरमौर ने ब्रिटिशरों का दक्षिण अफ्रीका युद्ध में मैन और मेटिरियल से सहयोग किया।
साढ़े बारह वर्ष तक शासन करने के उपरांत 4 जुलाई 1911 को राजा सुरेन्द्र विक्रम प्रकाश की मंसूरी में मृत्यु हुई।
24 अक्तूबर 1911 को राजा अमर प्रकाश ने अपने पिता सुरेन्द्र विक्रम प्रकाश की मृत्यु के उपरांत सिरमौर की गद्दी संभाली। वह भी अपने पिता के समान कुशल शासक थे। पिता की छत्रछाया में ही उन्होंने सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षण हासिल किया था। राजा अमर प्रकाश साधारण जीवन शैली जीने वाले, अत्यंत मेहनती, न्यायप्रिय और समय के पांबद शासक थे। वह अपने पूर्ववर्ती शासकों की तरह ब्रिटिशिरों के प्रति हमेशा कृतज्ञ रहे।
राजा अमर प्रकाश ने 1910 में नेपाल के महाराजा देव शमशेर जंग बहादुर की बड़ी राजकुमारी से विवाह किया। नेपाल राजकुमारी अति सुंदर, सुशील और शासन कार्य में निपुण थी।
प्रथम विश्व युद्ध में सिरमौर का भी योगदान रहा। सिरमौर रियासत का एक सैनिक दल मेसोपोटामिया में ब्रिटिशर के सहयेागी टुकड़ी के रूप में युद्ध के लिए रवाना किया गया।
युद्ध में सहयोग के लिए ब्रिटिश सरकार ने राजा अमर प्रकाश को के.सी.एस.आई. टाईटल से नवाजा। सन् 1915 और सन् 1918 में उन्हें ले. कर्नल और 1921 में उन्हें आई.सी.सी.आई.ई. की उपाधि दी गई।
सन् 1931 में राजा अमर प्रकाश का 11 गन सैल्यूट बढ़ाकर 13 गन सैल्यूट कर दिया गया।
अपने शासनकाल में राजा अमर प्रकाश ने कई सुधारवादी कार्य आरम्भ किए। जिसमें सुरेन्द्र वाटर वर्कस नाहन का कार्य पूर्ण होना भी शामिल है।
उन्होंने रियासत में निशुल्क प्राथमिक विद्यालय खोला और छात्रों के लिए छात्रावास स्थापित किए। उन्होंने अपनी पुत्री की याद में महिमा लाईब्रेरी की स्थापना की। नाहन से कालाआंब तक के मार्ग को भी उन्होंने पक्का करवाया।
राजा अमर प्रकाश के कालखंड में सन् 1931 में राजस्व सम्बन्धी सबसे महत्वपूर्ण कार्य हुआ। उन्होंने सैटलमेंट रिविजन करवाया जिससे स्टेट की भूमि का सही-सही ज्ञान हुआ।
1933 में राजा अमर प्रकाश महारानी के उपचार के लिए यूरोप गए हुए थे जहां उनका देहांत हो गया।
राजा राजेन्द्र प्रकाश अपने पिता राजा अमर प्रकाश की मृत्यु के पश्चात सन् 1933 में शासन पर काबिज हुए और उन्होंने रिपब्लिक ऑफ इंडिया में सिरमौर रियासत का विलय होने तक रियासत की बागडोर संभाली।
राजा राजेन्द्र प्रकाश भी अपने पिता की तरह कुशल, निपुण और प्रतिभाशाली शासनाध्यक्ष थे। उनके कार्यकाल में ही प्रोमगलेशन यूशन लोन एक्ट पास हुआ।
इस काल की महत्वपूर्ण घटनाओं में आजादी के लिए चल रहे प्रजामंडल आंदोलन शामिल है जिसमें स्वतंत्रा सेनानियों ने रियासत को हिला कर रख दिया था।
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