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गोरखा समुदाय

नाहन शहर में दो ऐसे समुदाय है जो नगर की संस्कृति को भिन्न रूप प्रदान करती है। इसमें सर्वप्रथम गोरखा समुदाय के लोग हैं। इस समुदाय के लोग रियासत काल से ही नाहन में रह रहे हैं।

नाहन में गोरखा समुदाय के आगमन के निश्चित काल की जानकारी नहीं है। गोरखा समुदाय के नाहन आगमन को मुख्यतः ‘एंगलो गोरखा वार, सिरमौर नरेश...... द्वारा नेपाल की राजकुमारी से विवाह से जोड़ कर देखा जाना ज्यादा उचित होगा। नाहन में रहने वाले गोरखा समुदाय का इतिहास 200 सालों से भी ज्यादा है।

यहां रहने वाले गोरखा समुदाय में अधिकतर सैनिक पृष्ठ भूमि वाले परिवार हैं जिनके बाप-दादा सिरमौर स्टेट फोर्स में सैनिक के रूप में तैनात थे। ‘सिरमौर स्टेट फोर्स’ में नियुक्त गोरखा समुदाय के लोग रियासत काल से ही नाहन के कैंट और आसपास के क्षेत्र में रहते हैं।

नाहन की संस्कृति को अलग रंग देता हुए गोरखा समुदाय विशुद्ध रूप से हिन्दू धर्म को मानने वाला है। दशहरे के उपलक्ष्य में माथे पर चावल और दही का टीका लगाए गोरखा समुदाय बाजारों में आम लोंगों के आकर्षण का केन्द्र बना रहता है। समुदाय के लोगों की जिंदादिली, ईमानदारी, बहादुरी और आपसी भाईचारा नाहन शहर की सांस्कृतिक धरोहर कही जा सकती है।

गोरखा इतिहास

इतिहासकार मानते हैं कि हिंदू राष्ट्र नेपाल और गोरखा दो अलग-अलग परिस्थितियों का मेल है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नेपाल शब्द की उत्पति काफी बाद में हुई थी। यानि एक समय में हिमालय के इस भू-भाग पर नेपाल नाम का कोई राष्ट्र नहीं था।

इसी प्रकार गोरखा से अभिप्रायः गुरू गोरखनाथ और उनके नाथ संप्रदाय से है। गुरू गोरखनाथ चूंकि नेपाल में अवतरित हुए थे और अनके अनुयायियों को कालांतर में गोरख, गोरक्षक अथवा गोरखा नाम से जाना गया। गुरू गोरखनाथ गोरक्षा के पक्षधर थे इसलिए गोरक्षा का अपभ्रंश गोरखा बना। गोरखा समुदाय के लोग वास्तव में मंगोल वंशी हैं इसलिए इनकी कद, काठी, चेहरा, आंखें गोलाकार अथवा छोटी हैं। मंगोल वंशियों में हम जापानी, चाईनिज, नेपाली, तिब्बती समुदाय को रखते हैं जिनका रंग, रूप और आकार लगभग एक सा ही दिखाई पड़ता है।

माना जाता है कि ब्रहमांड में पहली बार नेपाल के ही एक भूभाग में गुरू गोरखनाथ का अवतण हुआ जिसका नामकरण ‘गोरखा’ हुआ। नेपाल के गोरखा नामक स्थल पर एक गुफा में गोरखनाथ की चरण पादुका है और उनकी एक मूर्ति भी स्थित है। बैसाख पूर्णिमा को गोरखा स्थित गुफा में ‘रोट महोत्सव’ का आयोजन परम्परागत ढंग से किया जाता है। कहा जाता है कि यह महोत्सव सात-आठ सौ वर्षों से भी ज्यादा पुराना है। इसी प्रकार समझा जाता है कि गोरखपुर जिले का नामकरण भी गुरू गोरखनाथ के नाम पर हुआ।

नाथ संप्रदाय के 9 नाथों के जन्म और मृत्यु के रहस्य का ज्ञान रखने वाले संतों ने, गुरू गोरखनाथ को नौवें नाथ का दर्जा दिया है। नाथ संप्रदाय के आठवें नाथ, गुरू मत्स्येन्द्रनाथ के बाद नौवें नाथ के रूप में गुरू गोरखनाथ का अवतरण हुआ। गुरू गोरख नाथ को शिव अवतार भी माना जाता है। इसी प्रकार गुरू गोरखनाथ को हिमाचल के दियोठ सिद्ध स्थित बाबा बालक नाथ का गुरू भी माना जाता है।  

यदि हम इतिहास पर नजर डालें तो स्पष्ट होता है कि भारत में गोरखा समुदाय का आगमन एंगलो-गोरखा वार के साथ ही हुआ, जिसका इतिहास 200 साल से पुराना नहीं है। सबसे पहले नेपाल से गोरखा, योद्धा सैनिकों के रूप में भारत आए, यहां युद्ध किया और बाद में संधि उपरांत कुछ सैनिक, परिवारों सहित यहीं बस गए। अंग्रेजों ने गोरखा सैनिकों की बहादुरी को देखते हुए सैंकड़ों सैनिकों को अपनी सेना में शामिल कर लिया और उनके अधिकतर परिवार और उनकी संताने भारत में ही बस गई।

युद्ध उपरांत, नेपाल और भारत के राजवंशी परिवारों में पारिवारिक रिश्तों की नींव पड़ी। रिश्तों की इस नींव पर हिमाचल और गढ़वाल क्षेत्र के रियासतों के राजा-महाराजाओं ने अपने राजकुमारों का विवाह नेपाल की राजकुमारियों से किया। विवाह उपरांत रानियों के साथ कुछ सेवकों और अन्य कारदारों के परिवार सहित आने से गोरखा समुदाय का हिमाचल आगमन में प्रगति हुई।

नटशैल में यदि हम बात करें तो यह कहा जा सकता है कि हिमाचल में रहने वाला गोरखा समुदाय मूलतः सैनिक पृष्ठ भूमि वाला हैं। ब्रिटिश सेना के अलावा भारतीय रियासतों में सैनिकों के रूप में सेवारत सैनिक, भारत के आजाद होने के पश्चात परिवार सहित यहां बस गए। भारत की आजादी के कुछ वर्षों बाद 1950 को इंडो-नेपाल मैत्री संधि हुई जिसमें भारत में रहने वाले गोरखा परिवारों के भविष्य को संरक्षित करने के लिए समझौते पर हस्ताक्षर हुए।

 

(नोटः उपलब्ध जानकारी के अनुसार हमने इस आर्टिकल को तथ्यपरक बनाने का प्रयास किया है। यदि आपको इसमें किसी तथ्य, नाम, स्थल आदि के बारे में कोई सुधार वांछित लगता है तो info@mysirmaur.com पर अपना सुझाव भेंजे हम यथासंभव इसमें सुधार करेंगे)

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